13 જાન્યુ, 2019

અમેરિકાનો રોબિન હૂડ

અમેરિકાનો રોબિન હૂડ: આખી જિદંગી બૂટ પોલિશ કરી કમાયેલા દોઢ કરોડ રૂપિયા હોસ્પિટલને દાન કર્યા         

અમેરિકાના પેન્સિલ્વેનિયામાં રહેતા આલ્બર્ટ લેક્સિ બાળકોની હોસ્પિટલ બહાર જૂતા રિપેરિંગનું, પોલિશનું કામ કરતા હતા. શહેરમાં તેમની છબી રોબિન હૂડની હતી. કારણ એ હતું કે આલ્બર્ટ જે પણ કમાતા હતા તે તમામ રકમનું બાળકોને જ દાન કરતા હતા. આવું 25 વર્ષથી ચાલી આવતું હતું. ગયા સપ્તાહે આલ્બર્ટનું નિધન થયું. ત્યારબાદ એક સંસ્થા તેમને જિંદગીભર આપેલા દાનની રકમ ગણી તો તે રકમ 2 લાખ ડૉલર એટલે કે દોઢ કરોડ રૂપિયા સુધી પહોંચી ગઈ.આલ્બર્ટ ફ્રી કેર ફંડ નામની સંસ્થા દ્વારા બાળકોના અભ્યાસ માટે દાન આપતા હતા. તેમની પાસે મહિના-બે મહિનામાં જે રકમ ભેગી થતી હતી તે આ સંસ્થાને આપી દેતાં હતા. તેમના મૃત્યુ બાદ સંસ્થાએ તપાસ કરી તો ફ્રી કેર ફંડ પણ આશ્ચર્યમાં પડી ગયું. આલ્બર્ટ જે હોસ્પિટલ સામે બેસીને જૂતાને પોલિશ કરતા હતા ત્યાંના ચીફ ડૉક્ટર ગેસનર કહે છે કે 1982ની વાત છે. હું હોસ્પિટલમાં જોડાયો તો જોયું કે એક પોલિશ કરનાર પણ રોડ પર બેસીને કામ કરતો હતો.વર્ષો વિતતા ગયા. તે માણસ ચૂપચાપ પોતાનું કામ કરતો હતો. તે સવારે 5 વાગે પોતાના ગામથી 2 કલાકની મુસાફરી કરી હોસ્પિટલ સામે આવી બેસતો હતો અને પોતાનું કામ શરૂ કરતો હતો. ધીરે ધીરે લોકો તેને ઓળખવા લાગ્યા. તેનું નામ આલ્બર્ટ હતું. 1994-95માં અમને આલ્બર્ટની કથા ખબર પડી. બાળકોની હોસ્પિટલ સામે બેસવાથી તેને બાળકો માટે ઘણો પ્રેમ હતો. એક પોલિશના તે 2 ડોલર કમાતો હતો. પૈસા બચાવી તે તમામ બાળકોને અભ્યાસ માટે કામ કરતી એક સંસ્થાને આપતો હતો. જ્યારે લોકોને આ વાતનો ખ્યાલ આવ્યો ત્યારે લોકો માત્ર આલ્બર્ટના ઉમદા કામમાં મદદ કરવા તેની પાસે પોલિશ કરાવતા હતા.

11 જાન્યુ, 2019

स्वामी विवेकानंद जन्मदिन

विवेकानंद जयंती विशेष : राष्ट्रीय युवा दिवस


12 जनवरी : स्वामी विवेकानंद जन्मदिन

उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए' का संदेश देने वाले युवाओं के प्रेरणास्त्रो‍त, समाज सुधारक युवा युग-पुरुष 'स्वामी विवेकानंद' का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता (वर्तमान में कोलकाता) में हुआ। इनके जन्मदिन को ही राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। 

उनका जन्मदिन राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाए जाने का प्रमु्ख कारण उनका दर्शन, सिद्धांत, अलौकिक विचार और उनके आदर्श हैं, जिनका उन्होंने स्वयं पालन किया और भारत के साथ-साथ अन्य देशों में भी उन्हें स्थापित किया। उनके ये विचार और आदर्श युवाओं में नई शक्ति और ऊर्जा का संचार कर सकते हैं। उनके लिए प्रेरणा का एक उम्दा स्त्रोत साबित हो सकते हैं। 

किसी भी देश के युवा उसका भविष्य होते हैं। उन्हीं के हाथों में देश की उन्नति की बागडोर होती है। आज के पारिदृश्य में जहां चहुं ओर भ्रष्टाचार, बुराई, अपराध का बोलबाला है जो घुन बनकर देश को अंदर ही अंदर खाए जा रहे हैं। ऐसे में देश की युवा शक्ति को जागृत करना और उन्हें देश के प्रति कर्तव्यों का बोध कराना अत्यंत आवश्यक है। विवेकानंद जी के विचारों में वह क्रांति और तेज है जो सारे युवाओं को नई चेतना से भर दे। उनके दिलों को भेद दे। उनमें नई ऊर्जा और सकारात्कमता का संचार कर दे। 


स्वामी विवेकानंद की ओजस्वी वाणी भारत में तब उम्मीद की किरण लेकर आई जब भारत पराधीन था और भारत के लोग अंग्रेजों के जुल्म सह रहे थे। हर तरफ सिर्फ दु्‍ख और निराशा के बादल छाए हुए थे। उन्होंने भारत के सोए हुए समाज को जगाया और उनमें नई ऊर्जा-उमंग का प्रसार किया। 


सन् 1897 में मद्रास में युवाओं को संबोधित करते हुए कहा था 'जगत में बड़ी-बड़ी विजयी जातियां हो चुकी हैं। हम भी महान विजेता रह चुके हैं। हमारी विजय की गाथा को महान सम्राट अशोक ने धर्म और आध्यात्मिकता की ही विजयगाथा बताया है और अब समय आ गया है भारत फिर से विश्व पर विजय प्राप्त करे। यही मेरे जीवन का स्वप्न है और मैं चाहता हूं कि तुम में से प्रत्येक, जो कि मेरी बातें सुन रहा है, अपने-अपने मन में उसका पोषण करे और कार्यरूप में परिणत किए बिना न छोड़ें। 


हमारे सामने यही एक महान आदर्श है और हर एक को उसके लिए तैयार रहना चाहिए, वह आदर्श है भारत की विश्व पर विजय। इससे कम कोई लक्ष्य या आदर्श नहीं चलेगा, उठो भारत...तुम अपनी आध्यात्मिक शक्ति द्वारा विजय प्राप्त करो। इस कार्य को कौन संपन्न करेगा?' स्वामीजी ने कहा 'मेरी आशाएं युवा वर्ग पर टिकी हुई हैं'। 
स्वामी जी को यु्वाओं से बड़ी उम्मीदें थीं। उन्होंने युवाओं की अहं की भावना को खत्म करने के उद्देश्य से कहा है 'यदि तुम स्वयं ही नेता के रूप में खड़े हो जाओगे, तो तुम्हें सहायता देने के लिए कोई भी आगे न बढ़ेगा। यदि सफल होना चाहते हो, तो पहले ‘अहं’ ही नाश कर डालो।' उन्होंने युवाओं को धैर्य, व्यवहारों में शुद्ध‍ता रखने, आपस में न लड़ने, पक्षपात न करने और हमेशा संघर्षरत् रहने का संदेश दिया। 

10 જાન્યુ, 2019

लाल बहादुर शास्त्री की पुण्यतिथि पर शत शत नमन

लालबहादुर शास्त्री भारत के द्वितीय प्रधानमंत्री एवं स्वतंत्रता सेनानी लालबहादुर शास्त्री (जन्म: 2 अक्टूबर 1904 मुगलसराय - मृत्यु: 11 जनवरी 1966 ताशकन्द), भारत के दूसरे प्रधानमन्त्री थे। वह 9 जून 1964 से 11 जनवरी 1966 को अपनी मृत्यु तक लगभग अठारह महीने भारत के प्रधानमन्त्री रहे। इस प्रमुख पद पर उनका कार्यकाल अद्वितीय रहा। Prime Minister जवाहरलाल नेहरू पूर्ववर्ती गोविन्द वल्लभ पन्त परवर्ती गुलज़ारीलाल नन्दा जन्म 2 अक्टूबर 1904 मुगलसराय, अब पंडित दीन दयाल उपाध्याय ब्रिटिश भारत मृत्यु 11 जनवरी 1966 (उम्र 61) ताशकन्द, सोवियत संघ राजनैतिक दल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जीवन संगी ललिता शास्त्री Profession राजनेता, स्वतंत्रता सेनानी Religion हिन्दू भारत की स्वतन्त्रता के पश्चात शास्त्रीजी को उत्तर प्रदेश के संसदीय सचिव के रूप में नियुक्त किया गया था। गोविंद बल्लभ पंत के मन्त्रिमण्डल में उन्हें पुलिस एवं परिवहन मन्त्रालय सौंपा गया। परिवहन मन्त्री के कार्यकाल में उन्होंने प्रथम बार महिला संवाहकों (कण्डक्टर्स) की नियुक्ति की थी। पुलिस मन्त्री होने के बाद उन्होंने भीड़ को नियन्त्रण में रखने के लिये लाठी की जगह पानी की बौछार का प्रयोग प्रारम्भ कराया। 1951 में, जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में वह अखिल भारत काँग्रेस कमेटी के महासचिव नियुक्त किये गये। उन्होंने 1952, 1957 व 1962 के चुनावों में कांग्रेस पार्टी को भारी बहुमत से जिताने के लिये बहुत परिश्रम किया। जवाहरलाल नेहरू का उनके प्रधानमन्त्री के कार्यकाल के दौरान 27 मई, 1964 को देहावसान हो जाने के बाद साफ सुथरी छवि के कारण शास्त्रीजी को 1964 में देश का प्रधानमन्त्री बनाया गया। उन्होंने 9 जून 1964 को भारत के प्रधान मन्त्री का पद भार ग्रहण किया। उनके शासनकाल में 1965 का भारत पाक युद्ध शुरू हो गया। इससे तीन वर्ष पूर्व चीन का युद्ध भारत हार चुका था। शास्त्रीजी ने अप्रत्याशित रूप से हुए इस युद्ध में नेहरू के मुकाबले राष्ट्र को उत्तम नेतृत्व प्रदान किया और पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी। इसकी कल्पना पाकिस्तान ने कभी सपने में भी नहीं की थी। ताशकन्द में पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब ख़ान के साथ युद्ध समाप्त करने के समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद 11 जनवरी 1966 की रात में ही रहस्यमय परिस्थितियों में उनकी मृत्यु हो गयी। उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिये मरणोपरान्त भारत रत्न से सम्मानित किया गया। संक्षिप्त जीवनी संपादित करें लालबहादुर शास्त्री का जन्म 1904 में मुगलसराय (उत्तर प्रदेश) में मुंशी शारदा प्रसाद श्रीवास्तव के यहाँ हुआ था। उनके पिता प्राथमिक विद्यालय में शिक्षक थे अत: सब उन्हें मुंशीजी ही कहते थे। बाद में उन्होंने राजस्व विभाग में लिपिक (क्लर्क) की नौकरी कर ली थी।[1] लालबहादुर की माँ का नाम रामदुलारी था। परिवार में सबसे छोटा होने के कारण बालक लालबहादुर को परिवार वाले प्यार में नन्हें कहकर ही बुलाया करते थे। जब नन्हें अठारह महीने का हुआ दुर्भाग्य से पिता का निधन हो गया। उसकी माँ रामदुलारी अपने पिता हजारीलाल के घर मिर्ज़ापुर चली गयीं। कुछ समय बाद उसके नाना भी नहीं रहे। बिना पिता के बालक नन्हें की परवरिश करने में उसके मौसा रघुनाथ प्रसाद ने उसकी माँ का बहुत सहयोग किया। ननिहाल में रहते हुए उसने प्राथमिक शिक्षा ग्रहण की। उसके बाद की शिक्षा हरिश्चन्द्र हाई स्कूल और काशी विद्यापीठ में हुई। काशी विद्यापीठ से शास्त्री की उपाधि मिलने के बाद उन्होंने जन्म से चला आ रहा जातिसूचक शब्द श्रीवास्तव हमेशा हमेशा के लिये हटा दिया और अपने नाम के आगे 'शास्त्री' लगा लिया। इसके पश्चात् शास्त्री शब्द लालबहादुर के नाम का पर्याय ही बन गया। 1928 में उनका विवाह मिर्जापुर निवासी गणेशप्रसाद की पुत्री ललिता से हुआ। ललिता शास्त्री से उनके छ: सन्तानें हुईं, दो पुत्रियाँ-कुसुम व सुमन और चार पुत्र-हरिकृष्ण, अनिल, सुनील व अशोक। उनके चार पुत्रों में से दो-अनिल शास्त्री और सुनील शास्त्री अभी हैं, शेष दो दिवंगत हो चुके हैं। अनिल शास्त्री कांग्रेस पार्टी के एक वरिष्ठ नेता हैं जबकि सुनील शास्त्री भारतीय जनता पार्टी में चले गये। राजनीतिक जीवन संपादित करें "मरो नहीं, मारो!" का नारा लालबहादुर शास्त्री ने दिया जिसने क्रान्ति को पूरे देश में प्रचण्ड किया। संस्कृत भाषा में स्नातक स्तर तक की शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् वे भारत सेवक संघ से जुड़ गये और देशसेवा का व्रत लेते हुए यहीं से अपने राजनैतिक जीवन की शुरुआत की। शास्त्रीजी सच्चे गान्धीवादी थे जिन्होंने अपना सारा जीवन सादगी से बिताया और उसे गरीबों की सेवा में लगाया। भारतीय स्वाधीनता संग्राम के सभी महत्वपूर्ण कार्यक्रमों व आन्दोलनों में उनकी सक्रिय भागीदारी रही और उसके परिणामस्वरूप उन्हें कई बार जेलों में भी रहना पड़ा। स्वाधीनता संग्राम के जिन आन्दोलनों में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही उनमें 1921 का असहयोग आंदोलन, 1930 का दांडी मार्च तथा 1942 का भारत छोड़ो आन्दोलन उल्लेखनीय हैं। दूसरे विश्व युद्ध में इंग्लैण्ड को बुरी तरह उलझता देख जैसे ही नेताजी ने आजाद हिन्द फौज को "दिल्ली चलो" का नारा दिया, गान्धी जी ने मौके की नजाकत को भाँपते हुए 8 अगस्त 1942 की रात में ही बम्बई से अँग्रेजों को "भारत छोड़ो" व भारतीयों को "करो या मरो" का आदेश जारी किया और सरकारी सुरक्षा में यरवदा पुणे स्थित आगा खान पैलेस में चले गये। 9 अगस्त 1942 के दिन शास्त्रीजी ने इलाहाबाद पहुँचकर इस आन्दोलन के गान्धीवादी नारे को चतुराई पूर्वक "मरो नहीं, मारो!" में बदल दिया और अप्रत्याशित रूप से क्रान्ति की दावानल को पूरे देश में प्रचण्ड रूप दे दिया। पूरे ग्यारह दिन तक भूमिगत रहते हुए यह आन्दोलन चलाने के बाद 19 अगस्त 1942 को शास्त्रीजी गिरफ्तार हो गये। शास्त्रीजी के राजनीतिक दिग्दर्शकों में पुरुषोत्तमदास टंडन और पण्डित गोविंद बल्लभ पंत के अतिरिक्त जवाहरलाल नेहरू भी शामिल थे। सबसे पहले 1929 में इलाहाबाद आने के बाद उन्होंने टण्डनजी के साथ भारत सेवक संघ की इलाहाबाद इकाई के सचिव के रूप में काम करना शुरू किया। इलाहाबाद में रहते हुए ही नेहरूजी के साथ उनकी निकटता बढी। इसके बाद तो शास्त्रीजी का कद निरन्तर बढता ही चला गया और एक के बाद एक सफलता की सीढियाँ चढते हुए वे नेहरूजी के मंत्रिमण्डल में गृहमन्त्री के प्रमुख पद तक जा पहुँचे। और इतना ही नहीं, नेहरू के निधन के पश्चात भारतवर्ष के प्रधान मन्त्री भी बने। प्रधान मन्त्री संपादित करें उनकी साफ सुथरी छवि के कारण ही उन्हें 1964 में देश का प्रधानमन्त्री बनाया गया। उन्होंने अपने प्रथम संवाददाता सम्मेलन में कहा था कि उनकी शीर्ष प्राथमिकता खाद्यान्न मूल्यों को बढ़ने से रोकना है और वे ऐसा करने में सफल भी रहे। उनके क्रियाकलाप सैद्धान्तिक न होकर पूर्णत: व्यावहारिक और जनता की आवश्यकताओं के अनुरूप थे। निष्पक्ष रूप से यदि देखा जाये तो शास्त्रीजी का शासन काल बेहद कठिन रहा। पूँजीपति देश पर हावी होना चाहते थे और दुश्मन देश हम पर आक्रमण करने की फिराक में थे। 1965 में अचानक पाकिस्तान ने भारत पर सायं 7.30 बजे हवाई हमला कर दिया। परम्परानुसार राष्ट्रपति ने आपात बैठक बुला ली जिसमें तीनों रक्षा अंगों के प्रमुख व मन्त्रिमण्डल के सदस्य शामिल थे। संयोग से प्रधानमन्त्री उस बैठक में कुछ देर से पहुँचे। उनके आते ही विचार-विमर्श प्रारम्भ हुआ। तीनों प्रमुखों ने उनसे सारी वस्तुस्थिति समझाते हुए पूछा: "सर! क्या हुक्म है?" शास्त्रीजी ने एक वाक्य में तत्काल उत्तर दिया: "आप देश की रक्षा कीजिये और मुझे बताइये कि हमें क्या करना है?" शास्त्रीजी ने इस युद्ध में नेहरू के मुकाबले राष्ट्र को उत्तम नेतृत्व प्रदान किया और जय जवान-जय किसान का नारा दिया। इससे भारत की जनता का मनोबल बढ़ा और सारा देश एकजुट हो गया। इसकी कल्पना पाकिस्तान ने कभी सपने में भी नहीं की थी। भारत पाक युद्ध के दौरान ६ सितम्बर को भारत की १५वी पैदल सैन्य इकाई ने द्वितीय विश्व युद्ध के अनुभवी मेजर जनरल प्रसाद के नेत्तृत्व में इच्छोगिल नहर के पश्चिमी किनारे पर पाकिस्तान के बहुत बड़े हमले का डटकर मुकाबला किया। इच्छोगिल नहर भारत और पाकिस्तान की वास्तविक सीमा थी। इस हमले में खुद मेजर जनरल प्रसाद के काफिले पर भी भीषण हमला हुआ और उन्हें अपना वाहन छोड़ कर पीछे हटना पड़ा। भारतीय थलसेना ने दूनी शक्ति से प्रत्याक्रमण करके बरकी गाँव के समीप नहर को पार करने में सफलता अर्जित की। इससे भारतीय सेना लाहौर के हवाई अड्डे पर हमला करने की सीमा के भीतर पहुँच गयी। इस अप्रत्याशित आक्रमण से घबराकर अमेरिका ने अपने नागरिकों को लाहौर से निकालने के लिये कुछ समय के लिये युद्धविराम की अपील की। आखिरकार रूस और अमरिका की मिलीभगत से शास्त्रीजी पर जोर डाला गया। उन्हें एक सोची समझी साजिश के तहत रूस बुलवाया गया जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। हमेशा उनके साथ जाने वाली उनकी पत्नी ललिता शास्त्री को बहला फुसलाकर इस बात के लिये मनाया गया कि वे शास्त्रीजी के साथ रूस की राजधानी ताशकन्द न जायें और वे भी मान गयीं। अपनी इस भूल का श्रीमती ललिता शास्त्री को मृत्युपर्यन्त पछतावा रहा। जब समझौता वार्ता चली तो शास्त्रीजी की एक ही जिद थी कि उन्हें बाकी सब शर्तें मंजूर हैं परन्तु जीती हुई जमीन पाकिस्तान को लौटाना हरगिज़ मंजूर नहीं। काफी जद्दोजहेद के बाद शास्त्रीजी पर अन्तर्राष्ट्रीय दबाव बनाकर ताशकन्द समझौते के दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर करा लिये गये। उन्होंने यह कहते हुए हस्ताक्षर किये थे कि वे हस्ताक्षर जरूर कर रहे हैं पर यह जमीन कोई दूसरा प्रधान मन्त्री ही लौटायेगा, वे नहीं। पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब ख़ान के साथ युद्धविराम के समझौते पर हस्ताक्षर करने के कुछ घण्टे बाद 11 जनवरी 1966 की रात में ही उनकी मृत्यु हो गयी। यह आज तक रहस्य बना हुआ है कि क्या वाकई शास्त्रीजी की मौत हृदयाघात के कारण हुई थी? कई लोग उनकी मौत की वजह जहर को ही मानते हैं। शास्त्रीजी को उनकी सादगी, देशभक्ति और ईमानदारी के लिये आज भी पूरा भारत श्रद्धापूर्वक याद करता है। उन्हें मरणोपरान्त वर्ष 1966 में भारत रत्न से सम्मानित किया गया। रहस्यपूर्ण मृत्यु संपादित करें मुंबई में शास्त्रीजी की आदमकद प्रतिमा पाकिस्तान के आक्रमण का सामना करते हुए भारतीय सेना ने लाहौर पर धाबा बोल दिया। इस अप्रत्याशित आक्रमण को देख अमेरिका ने लाहौर में रह रहे अमेरिकी नागरिकों को निकालने के लिए कुछ समय के लिए युद्धविराम की मांग की। रूस और अमेरिका के चहलकदमी के बाद भारत के प्रधानमंत्री को रूस के ताशकंद समझौता में बुलाया गया। शास्त्री जी[4] ने ताशकंद समझौते की हर शर्तों को मंजूर कर लिया मगर पाकिस्तान जीते इलाकों को लौटाना हरगिज स्वीकार नहीं था। अंतर्राष्ट्रीय दवाब में शास्त्री जी को ताशकंद समझौते पर हस्ताक्षर करना पड़ा पर लाल बहादुर शास्त्री ने खुद प्रधानमंत्री कार्यकाल में इस जमीन को वापस करने से इंकार कर दिया। पाकिस्तान के प्रधानमंत्री अयूब खान के साथ युद्ध विराम पर हस्ताक्षर करने के कुछ घंटे बाद ही भारत देश के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का संदिग्ध निधन हो गया। 11 जनवरी 1966 की रात देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री की मृत्यु हो गई। ताशकन्द समझौते पर हस्ताक्षर करने के बाद उसी रात उनकी मृत्यु हो गयी। मृत्यु का कारण हार्ट अटैक बताया गया। शास्त्रीजी की अन्त्येष्टि पूरे राजकीय सम्मान के साथ शान्तिवन (नेहरू जी की समाधि) के आगे यमुना किनारे की गयी और उस स्थल को विजय घाट नाम दिया गया। जब तक कांग्रेस संसदीय दल ने इन्दिरा गान्धी को शास्त्री का विधिवत उत्तराधिकारी नहीं चुन लिया, गुलजारी लाल नन्दा कार्यवाहक प्रधानमन्त्री रहे। शास्त्रीजी की मृत्यु को लेकर तरह-तरह के कयास लगाये जाते रहे। बहुतेरे लोगों का, जिनमें उनके परिवार के लोग भी शामिल हैं, मत है कि शास्त्रीजी की मृत्यु हार्ट अटैक से नहीं बल्कि जहर देने से ही हुई।[2] पहली इन्क्वायरी राज नारायण ने करवायी थी, जो बिना किसी नतीजे के समाप्त हो गयी ऐसा बताया गया। मजे की बात यह कि इण्डियन पार्लियामेण्ट्री लाइब्रेरी में आज उसका कोई रिकार्ड ही मौजूद नहीं है।[6] यह भी आरोप लगाया गया कि शास्त्रीजी का पोस्ट मार्टम भी नहीं हुआ। 2009 में जब यह सवाल उठाया गया तो भारत सरकार की ओर से यह जबाव दिया गया कि शास्त्रीजी के प्राइवेट डॉक्टर आर०एन०चुघ और कुछ रूस के कुछ डॉक्टरों ने मिलकर उनकी मौत की जाँच तो की थी परन्तु सरकार के पास उसका कोई रिकॉर्ड नहीं है। बाद में प्रधानमन्त्री कार्यालय से जब इसकी जानकारी माँगी गयी तो उसने भी अपनी मजबूरी जतायी। शास्त्रीजी की मौत में संभावित साजिश की पूरी पोल आउटलुक नाम की एक पत्रिका ने खोली। 2009 में, जब साउथ एशिया पर सीआईए की नज़र (अंग्रेजी: CIA's Eye on South Asia) नामक पुस्तक के लेखक अनुज धर ने सूचना के अधिकार के तहत माँगी गयी जानकारी पर प्रधानमन्त्री कार्यालय की ओर से यह कहना कि "शास्त्रीजी की मृत्यु के दस्तावेज़ सार्वजनिक करने से हमारे देश के अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्ध खराब हो सकते हैं तथा इस रहस्य पर से पर्दा उठते ही देश में उथल-पुथल मचने के अलावा संसदीय विशेषधिकारों को ठेस भी पहुँच सकती है। ये तमाम कारण हैं जिससे इस सवाल का जबाव नहीं दिया जा सकता।"। सबसे पहले सन् 1978 में प्रकाशित एक हिन्दी पुस्तक ललिता के आँसू[8] में शास्त्रीजी की मृत्यु की करुण कथा को स्वाभाविक ढँग से उनकी धर्मपत्नी ललिता शास्त्री के माध्यम से कहलवाया गया था। उस समय (सन् उन्निस सौ अठहत्तर में) ललिताजी जीवित थीं। यही नहीं, कुछ समय पूर्व प्रकाशित एक अन्य अंग्रेजी पुस्तक में लेखक पत्रकार कुलदीप नैयर ने भी, जो उस समय ताशकन्द में शास्त्रीजी के साथ गये थे, इस घटना चक्र पर विस्तार से प्रकाश डाला है। गत वर्ष जुलाई 2012 में शास्त्रीजी के तीसरे पुत्र सुनील शास्त्री ने भी भारत सरकार से इस रहस्य पर से पर्दा हटाने की माँग की थी।

*पुण्यतिथि पर शत शत नमन 🙏     

      कैसे हुई थी लाल बहादुर शास्त्री की मौत...? कुछ मौतें ऐसी होती है जो ताउम्र रहस्य बनी रहती है। गुदड़ी के लाल, लाल बहादुर शास्त्री की ताशकंद में मौत ऐसा ही एक रहस्य है जो 46 वर्ष बाद आज भी रहस्य ही बना हुआ है। सरकार गोपनीयता एवं विदेशी संबंधों का हवाला देकर इसे उजागर करने से इंकार कर रही है, लेकिन उनके परिवार के सदस्य इस रहस्य पर से पर्दा उठाने की मांग कर रहे है। लाल बहादुर शास्त्री के पुत्र एवं नेता अनिल शास्त्री ने कहा कि ‘मेरी मां (ललिता) को शुरू से ही संदेह था कि उनका (शास्त्री जी का) निधन स्वाभाविक नहीं है। इस मामले में जांच में काफी विलंब हो चुका है, लेकिन अभी भी काफी कुछ किया जा सकता है। सच तो बाहर आना ही चाहिए।’ उन्होंने संदेह जताया कि उस समय शास्त्रीजी की देखरेख में लापरवाही बरती गई क्योंकि यह कैसे संभव है कि प्रधानमंत्री के कमरे में टेलीफोन और चिकित्सा सुविधा नहीं हो। उन्होंने कहा कि 70 के दशक में जनता पार्टी की सरकार ने आश्वासन दिया था कि सच सामने लाया जाएगा, लेकिन तत्कालीन गृह मंत्री चरण सिंह ने उस समय कहा था कि ऐसे कोई प्रमाण नहीं है। अनिल शास्त्री ने कहा कि इस मामले में आज की तारीख में शास्त्रीजी के साथ के कई लोग जीवित नहीं है। उनके चिकित्सक रहे डॉ. चुग के पूरे परिवार की दिल्ली के रिंग रोड में सड़क दुर्घटना में मौत हो चुकी है। अनिल शास्त्री ने कहा कि उनके साथ के मास्टर अर्जन सिंह और शास्त्रीजी के संयुक्त सचिव रहे सी.पी. श्रीवास्तव अभी जीवित हैं, जो अब विदेश में रहते हैं। श्रीवास्तव ने इस विषय पर एक पुस्तक ‘लाइफ ऑफ ट्रूथ इन पॉलिटिक्स’ लिखी है। उन्होंने कहा कि ऐसे लोगों में वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैय्यर भी शामिल हैं जो उनके साथ ताशकंद गए थे। उनको शास्त्रीजी के निधन की परिस्थितियों पर गंभीर संदेह है और इसका उल्लेख उन्होंने अपनी पुस्तक में भी किया है। उन्होंने कहा, ‘इन सभी परिस्थितियों का खुलासा होना चाहिए और संदेह के बादल छंटने चाहिए।’ शास्त्री ने कहा कि कुछ समय पहले सूचना के अधिकार कानून के तहत इस बारे में मांगी गई जानकारी के जवाब में सरकार ने कहा था कि यह दस्तावेज सार्वजनिक नहीं किए जा सकते, क्योंकि इससे विदेश संबंध प्रभावित होंगे और यह देशहित में नहीं होगा। उन्होंने कहा, ‘कम से कम दस्तावेज तो सार्वजनिक किए ही जा सकते है, इसमें कोई हर्ज नहीं होना चाहिए।’ सूचना के अधिकार के तहत अनुज धर ने शास्त्रीजी के निधन के बारे में जानकारी मांगी थी। सरकार से जानकारी नहीं मिलने के बाद अब अनुज धर ‘एंड दी सिक्रेसी डॉट कॉम ब्लॉग’ के माध्यम से अभियान चला रहे हैं। गौरतलब है कि 11 जनवरी 1966 को लाल बहादुर शास्त्री की तत्कालीन सोवियत संघ के ताशकंद में रहस्यमय परिस्थितियों में मौत हो गई थी। वह पाकिस्तान के साथ संधि करने वहां गए थे। इस मामले में वहां उनकी सेवा में लगाए गए एक बावर्ची को हिरासत में लिया गया था, लेकिन बाद में उसे छोड़ दिया गया।

9 જાન્યુ, 2019

विश्व हिन्दी दिवस

दुनिया भर में हिंदी (Hindi) के प्रचार-प्रसार के लिए पहला विश्‍व हिंदी सम्‍मेलन 10 जनवरी 1975 को नागपुर में आयोजित किया गया था. इसलिए इस दिन को विश्‍व हिंदी दिवस के रूप में मनाया जाता है. इस सम्मेलन में 30 देशों के 122 प्रतिनिधि शामिल हुए थे. 2006 के बाद से हर साल 10 जनवरी को विश्वभर में विश्व हिंदी दिवस मनाया जाता है. पूर्व प्रधानमंत्री डॉक्‍टर मनमोहन सिंह ने 10 जनवरी 2006 को हर साल विश्व हिंदी दिवस के रूप मनाए जाने की घोषणा की थीविदेशों में भारतीय दूतावास विश्व हिंदी दिवस (World Hindi Day) के मौके पर विशेष आयोजन करते हैं. सभी सरकारी कार्यालयों में विभिन्न विषयों पर हिंदी में कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं. हिन्दी हैं हम, वतन है हिन्दोस्तां हमारा.. विश्व हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं..

विश्व हिन्दी दिवस | 10 जनवरी विश्व हिन्दी दिवस का उद्देश्य विश्व में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए वातावरण निर्मित करना, हिन्दी के प्रति अनुराग पैदा करना, हिन्दी की दशा के लिए जागरूकता पैदा करना तथा हिन्दी को विश्व भाषा के रूप में प्रस्तुत करना है। विदेशों में भारतीय दूतावास विश्व हिन्दी दिवस को विशेष आयोजन करते हैं। सभी सरकारी कार्यालयों में विभिन्न विषयों पर हिन्दी के लिए अनूठे कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। 10 जनवरी ही क्यों? विश्व में हिन्दी प्रचारित- प्रसारित करने के उद्देश्य से विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजन आरंभ किया गया था। प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन 10 जनवरी, 1975 को नागपुर में आयोजित हुआ था। अत: 10 जनवरी का दिन ही विश्व हिन्दी दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 10 जनवरी 2006 को प्रति वर्ष विश्व हिन्दी दिवस (10 जनवरी) के रूप मनाए जाने की घोषणा की थी। सनद रहे विश्व हिन्दी दिवस के अतिरिक्त 14 सितंबर को 'हिंदी-दिवस' के रूप में मनाया जाता है। 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया था तभी से 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है।

1975 में पहला विश्व हिंदी सम्मलेन 10 जनवरी को आयोजित किया गया था। उस दिन की याद में प्रतिवर्ष 10 जनवरी को वर्ल्ड हिंदी डे के रूप में मनाया जाता हैं। आइये, इस साल "वर्ल्ड हिंदी डे " को एक अनोखे तरीके से मानते हैं। हम सब लोग रोजमर्रा में तो हिंदी में बात करते हैं पर क्या आपको हिंदी की पूरी वर्णमाला याद हैं ? यदि हाँ तो शुरू हो जाइये और "क ख़ ग घ ड़.... " बोलना शुरू करे और हमारे साथ शेयर करे "हिंदी की वर्णमाला " टैग पर ।

विश्व हिन्दी दिवस | 10 जनवरी विश्व हिन्दी दिवस का उद्देश्य विश्व में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए वातावरण निर्मित करना, हिन्दी के प्रति अनुराग पैदा करना, हिन्दी की दशा के लिए जागरूकता पैदा करना तथा हिन्दी को विश्व भाषा के रूप में प्रस्तुत करना है। विदेशों में भारतीय दूतावास विश्व हिन्दी दिवस को विशेष आयोजन करते हैं। सभी सरकारी कार्यालयों में विभिन्न विषयों पर हिन्दी के लिए अनूठे कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। 10 जनवरी ही क्यों? विश्व में हिन्दी प्रचारित- प्रसारित करने के उद्देश्य से विश्व हिन्दी सम्मेलन का आयोजन आरंभ किया गया था। प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन 10 जनवरी, 1975 को नागपुर में आयोजित हुआ था। अत: 10 जनवरी का दिन ही विश्व हिन्दी दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 10 जनवरी 2006 को प्रति वर्ष विश्व हिन्दी दिवस (10 जनवरी) के रूप मनाए जाने की घोषणा की थी। सनद रहे विश्व हिन्दी दिवस के अतिरिक्त 14 सितंबर को 'हिंदी-दिवस' के रूप में मनाया जाता है। 14 सितंबर 1949 को संविधान सभा ने हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया था तभी से 14 सितंबर को हिंदी दिवस मनाया जाता है।

आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को 10 फीसदी आरक्षण

सामान्य वर्ग में आर्थिक रूप से कमजोर लोगों को 10 फीसदी आरक्षण देने के लिए मंगलवार को लोकसभा में संशोधित बिल पास हुआ. लोकसभा चुनाव से ऐन पहले नरेंद्र मोदी सरकार के इस फैसले को मास्टरस्ट्रोक माना जा रहा है. अब केंद्र सरकार के सामने इस बिल को राज्यसभा में पास कराने की चुनौती है. राज्यसभा में एनडीए सरकार के पास बहुमत नहीं है, ऐसे में आज सरकार किस प्रकार इस बिल का पास कराती है ये देखने वाला होगा. गौरतलब है कि राज्यसभा में एनडीए सरकार बहुमत से दूर है, हालांकि समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी समेत अन्य विपक्षी पार्टियों ने लोकसभा में जिस तरह इस बिल का समर्थन किया है. उससे लगता है कि सरकार के लिए ये बिल राज्यसभा में आसानी से पास हो जाएगा.बता दें कि राज्यसभा में एनडीए सरकार के पास बहुमत से काफी कम आंकड़ा है. NDA के पक्ष में सिर्फ 90 सदस्य हैं, जिनमें BJP के 73, निर्दलीय + मनोनीत 7, शिवसेना के 3, अकाली दल के 3, पूर्वोत्तर की पार्टियों की तीन (बोडोलैंड पीपल्स फ्रंट+सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट+नागा पीपल्स फ्रंट) और आरपीआई के 1 सांसद हैं. जबकि विपक्ष के पास 145 सांसद हैं, जिसमें कांग्रेस के 50, TMC के 13, समाजवादी पार्टी के 13, AIADMK के 13, BJD के 9, TDP के 6, RJD के 5, CPM के 5, DMK के 4, BSP के 4, NCP के 4, आम आदमी पार्टी के 3, CPI के 2, JDS के 1, केरल कांग्रेस (मनी) के 1, आईएनएलडी के 1, आईयूएमएल के 1, 1 निर्दलीय और 1 नामित सदस्य शामिल ।

8 જાન્યુ, 2019

स्टीफन हॉकिंग

विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग का जन्म ब्रिटेन में 8 जनवरी 1942 को हुआ था। इनकी मृत्यु 14 मार्च 2018 को हुई थी। स्टीफन हॉकिंग को 21 साल की उम्र में ही एक लाइलाज बीमारी हो गई थी, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और दुनिया से सर्वश्रेष्ठ वैज्ञानिकों में से एक बन गए। वे कैंब्रिज यूनिवर्सिटी में सैद्धांतिक ब्रह्मांड विज्ञान के निदेशक थे। स्टीफन हॉकिंग अल्बर्ट आइंस्टीन के बाद सबसे बड़े भौतिकशास्त्री माने जाते हैं। कंप्यूटर और अलग-अलग गैजेट्स की मदद से वे अपने विचार व्यक्त करते थे। स्टीफन हॉकिंग ने जीवन से सफलता पाने के कई सूत्र बताए हैं, अगर इन बातों का ध्यान रखा जाए तो हम अपने लक्ष्य को हासिल कर सकते हैं...

1. इंसान का सबसे बड़ा दुश्मन मूर्खता नहीं, बल्कि ज्ञानी होने का भ्रम है। हॉकिंग का बदलाव को लेकर हमेशा से ही पॉजिटिव रुख रहा है। उनका कहना था कि ज्ञान का मतलब है बदलाव को अपनाने की क्षमता रखना है।

2. हमें सबसे अधिक महत्व का काम सबसे पहले करने का प्रयास करना चाहिए।

3. वास्तविकता की कोई अनूठी तस्वीर नहीं होती है।

4. हम अपने लालच और मुर्खता के चलते खुद के अस्तित्व को खत्म कर रहे हैं, चाहे जीवन जितना भी कठिन लगे, आप हमेशा कुछ न कुछ कर सकते हैं और सफल हो सकते हैं।

5. मैंने देखा है वो लोग भी जो ये कहते हैं कि सब कुछ पहले से तय है और हम उसे बदलने के लिए कुछ भी नहीं कर सकते, वे भी सड़क पार करने से पहले देखते हैं।

6. अगर आप हमेशा गुस्सा या शिकायत करते हैं तो लोगों के पास आपके लिए समय नहीं रहेगा।

7. जब किसी की उम्मीद एकदम खत्म हो जाती है, तब वो सचमुच हर उस चीज का महत्व समझता है, जो उसके पास है।

8. काम आपको अर्थ और उद्देश्य देता है और इसके बिना जीवन अधूरा है।

9. हर व्यक्ति के पास अपने जीवन में कुछ बड़ा करके दिखाने का मौका होता है, चाहे उसके जीवन में कितनी भी परेशानियां हों।

10. बुद्धिमत्ता बदलाव के अनुरूप ढलने की क्षमता है।

4 જાન્યુ, 2019

लुई ब्रेल दिवस

लुई ब्रेल दिवस

विवरणब्रेल पद्धति का आविष्कार 1821 में एक नेत्रहीन फ्रांसीसी लेखक लुई ब्रेल ने किया था। इसी उपलक्ष्य में यह दिन मनाया जाता है। तिथि4 जनवरी अन्य जानकारीसन 2009 में 4 जनवरी को जब लुई ब्रेल के जन्म को पूरे दो सौ वर्षों का समय पूरा हुआ तो लुई ब्रेल जन्म द्विशती के अवसर पर हमारे देश ने उन्हें पुनः पुर्नजीवित करने का प्रयास किया जब इस अवसर पर उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया गया। लुई ब्रेल दिवस 4 जनवरी को लुई ब्रेल की याद में मनाया जाता है। लुई ब्रेल ने नेत्रहीनों के लिये ब्रेल लिपि का निर्माण किया था। लुई ब्रेल की वजह से नेत्रहीनों को पढ़ने का मौक़ा मिला। सन 2009 में 4 जनवरी को जब लुई ब्रेल के जन्म को पूरे दो सौ वर्षों का समय पूरा हुआ तो लुई ब्रेल जन्म द्विशती के अवसर पर हमारे देश ने उन्हें पुनः पुर्नजीवित करने का प्रयास किया जब इस अवसर पर उनके सम्मान में डाक टिकट जारी किया गया। 

ब्रेल लिपि मुख्य लेख :

       ब्रेल लिपि एक तरह की लिपि है, जिसको विश्व भर में नेत्रहीनों को पढ़ने और लिखने में छूकर व्यवहार में लाया जाता है। इस पद्धति का आविष्कार 1821 में एक नेत्रहीन फ्रांसीसी लेखक लुई ब्रेल ने किया था। यह अलग-अलग अक्षरों, संख्याओं और विराम चिन्हों को दर्शाते हैं। ब्रेल के नेत्रहीन होने पर उनके पिता ने उन्हें पेरिस के रॉयल नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर ब्लाइंड चिल्डे्रन में भर्ती करवा दिया। उस स्कूल में "वेलन्टीन होउ" द्वारा बनाई गई लिपि से पढ़ाई होती थी, पर यह लिपि अधूरी थी। इस विद्यालय में एक बार फ्रांस की सेना के एक अधिकारी कैप्टन चार्ल्स बार्बियर एक प्रशिक्षण के लिये आए और उन्होंने सैनिकों द्वारा अँधेरे में पढ़ी जाने वाली "नाइट राइटिंग" या "सोनोग्राफी" लिपि के बारे में व्याख्यान दिया। यह लिपि कागज पर अक्षरों को उभारकर बनाई जाती थी और इसमें 12 बिंदुओं को 6-6 की दो पंक्तियों को रखा जाता था, पर इसमें विराम चिह्न, संख्‍या, गणितीय चिह्न आदि नहीं होते थे।

    ब्रेल को वहीम से यह विचार आया। लुई ने इसी लिपि पर आधारित किन्तु 12 के स्थान पर 6 बिंदुओं के उपयोग से 64 अक्षर और चिह्न वाली लिपि बनायी। उसमें न केवल विराम चिह्न बल्कि गणितीय चिह्न और संगीत के नोटेशन भी लिखे जा सकते थे। यही लिपि आज सर्वमान्य है। लुई ने जब यह लिपि बनाई तब वे मात्र 15 वर्ष के थे। सन् 1824 में पूर्ण हुई यह लिपि दुनिया के लगभग सभी देशों में उपयोग में लाई जाती ।

નિંદ્રા નો કુદરતી ક્રમ

🌷🌷 નિંદ્રા નો કુદરતી ક્રમ 😴😴

રાત્રી ના ૧૧ થી ૩ સુધી લોહી નો મહત્તમ પ્રવાહ લીવર તરફ હોય છે.
આ એ મહત્વ નો સમય છે જયારે શરીર લીવર ની મદદ થી, વિષરહિત થવાની પ્રક્રિયા માં થી, પસાર થાય છે,
એનો આકાર મોટો થઈ જાયે  છે,

પણ આ પ્રક્રિયા આપ ગાઢ નિદ્રા માં, પોહચો પછીજ શરૂ થાયે છે.
😌😌😲😲😴😲😲🤔

તમે ૧૧ વાગે ગાઢ નિંદ્રા ની અવસ્થા માં પોહચો પછીજ
આ પ્રક્રિયા શરૂ થાય
અને તો શરીર ને, પુરા

૪ કલાક મળે વિષમુક્ત થવા માટે.
🐞🦀🕸🕷🐍

હવે તમે જો ૧૨ વાગે ગાઢ નિંદ્રા ની અવસ્થા માં પહોંચો તો

તમારા શરીર ને ૩ કલાક જ મળે.

જો, ૧ વાગે ગાઢ નિંદ્રા ની અવસ્થા માં પહોંચો તો
તમારા શરીર ને 2 કલાક જ મળે.

અને જો, ..🐸2 વાગે ગાઢ નિંદ્રા ની અવસ્થા માં પહોંચો તો

તમારા શરીર ને ૧ જ કલાક મળે. 🐽🙈🌚⚡⚡🧐☹🙁

જ્યાં ૪ કલાક ની તાતી  જરૂર  હોય ત્યાં ઓછા કલાક  મળવા થી વિષ મુક્તિ નું  કાર્ય સંપૂર્ણ રીતે ના થઈ શકે.

અને શરીર વિષયુક્ત રોગો નું ઘર થતું જાયે.

થોડું વિચારી જુવો 🙄🤔    જયારે પણ તમે મોડી રાત
સુધી જાગ્યા હોવ

ત્યારે ગમે તેટલા કલાક
ઊંઘો     😴😴તમને પોતાની કાયા  બીજે દિવસે થાકેલીજ લાગશે. 🤒🤢

શરીર ને વિષમુક્ત થવા પૂરતો સમય ના આપી ને, 👾🤖👻
શરીર ની બીજી અનેક ક્રિયા
ઓ માં તમે અજાણતાંજ
અવરોધ ઉત્પન્ન કરો છો. 😷🤧

બ્રહ્મા મુરત એટલે સવારે ૩ થી ૫ ના સમય માં લોહી નું સંચરણ ફેફસાં તરફ થતું હોય છે. ☄🎇

જે અત્યંત જરૂરી ક્રિયા નું
સ્થાન છે તે વખતે 😇
તમે મન અને તન
ને સ્વચ્છ કરી, ધ્યાન જેવી સુક્ષ્મા પ્રકિર્યા માં જાત ને પરોવી જોઈએ

જેથી બ્રહ્માંડીય ઉર્જા જે તે સમય એ  વિપુલ માત્રા માં સહજ ઉપલબ્ધ હોય તે તમને પ્રાપ્ત થાય, 🤩😇🙌🎅🏼

તે પછી ખુલ્લી હવા માં, વ્યાયામ કરવો જોઈએ હવા માં
આ સમયે લાભપ્રદ આયન ની માત્રા ખૂબજ વધારે હોય છે. 🤽🏼‍♀⛹🏻‍♂🤼‍♀🤸🏻‍♀🚴🏼‍♀🚴🏾‍♂

૫ થી ૭ શુદ્ધ થયેલા રક્ત નો સંચાર તમારા મોટા આંતરડા તરફ હોય છે.
જે પાછલો મળ કાઢવાની પ્રક્રિયા માં સક્રિય ભાગ લે છે અને શરીર ને આખા દિવસ દરમિયાન લેવાતા પોષક તત્વો ગ્રહણ કરવા માટે તૈયાર કરે છે

પછી સૂર્યોદય ના સમય એ, 7- 9 શુદ્ધ રક્ત સ્વચ્છ શરીર ના પેટ અને આમાશય તરફ વહે છે.
આ સમય છે જયારે  પૌષ્ટિક નાસ્તો એટલે શિરામણ આરોગવો
જોઈએ. 🥥🍌🍇🥦🥕🍊🍎🧀🥗🥙🍜🍱

તમારા દિવસ નો તે સહુથી જરૂરી આહાર છે. 🤩🙋🏼‍♂🤷🏻‍♀

સવારે પૌષ્ટિક નાસ્તો
ના કરતા લોકો ને ભવિષ્ય માં ઘણી બધી આરોગ્ય-લક્ષી સમસ્યા નો સામનો કરવો
પડે  છે. 🤥😱😓🤒😷

આ કુદરત એ તમારા શરીર માટે બનાવેલી આરોગ્ય ઘડિયાળ છે.

એને અનુસરવા થી ચિતા સુધી ચાલતા જઈ શકાય. 

હવે તમે પૂછશો કે ક્યારેક કોઈ
કાર્ય મોડી રાત સુધી કરવું પડે
તો શું કરવાનું?

હું તો વિનંતી કરીશ ke kem જલદી સૂઈ ને વહેલા ઉઠી ને ના કરી શકાય ?

બસ  તમારા મોડી રાત ના કાર્યો ને વહેલા ઉઠી ને કરવાની આદત પાડો સમય તો સરખોજ મળશે.

પણ સાથે સાથે સ્વસ્થ શરીર પ્રાપ્ત થશે.

2 જાન્યુ, 2019

ગુજરાતને સિક્કીમની જેમ સંપૂર્ણ જૈવિક ખેતી તરફ લઈ જવા સંકલ્પ કરીએ

👉"એક દેશી ગાય પાળો...ત્રીસ એકર  ખેતી કરો"👈
  ખેડૂત મિત્રો, જય બલરામ...🙏
            જય ગૌવંદે માતરમ્...🙏
  સમસ્ત ખેડુત મિત્રોને જણાવવાનું કે પદ્મશ્રી સુભાષ પાલેકર પ્રેરિત દેશી ગાય આધારિત આધ્યાત્મિક ખેતી (ZBNF) શીખવા સમજવા માટેની છ દિવસની આવાસીય શિબિરનું આયોજન અમદાવાદ ખાતે થયું છે. જરૂરથી લાભ લો.
👉શિબિર સ્થળ:- રસરાજ પાર્ટી પ્લોટ, નિકોલ,અમદાવાદ.
👉સમય:-તા. 8 જાન્યુઆરી થી 13જાન્યુઆરી, 2019(છ) દિવસ.
👉રજીસ્ટ્રેશન ફી:-
પુરુષો માટે ₹500/-
સ્ત્રીઓ માટે ₹300/-
👉નોધ:- 1, ઉપરોક્ત રજીસ્ટ્રેશન ફીમાં છ દિવસ રહેવાનુ બે ટાઇમ જમવાનું ત્થા સવારે નાસ્તો અને બે ટાઇમ ચા/કોફી આપવામાં આવશે.
2, યુવા ખેડુતો માટે આ શિબિર ખાસ છે. શક્ય તેટલું જલદી રજીસ્ટ્રેશન કરાવી લેવું.
3, એક ખેડુત પાછળ ₹1500/- ખર્ચ આવી શકે છે. પરંતુ શક્ષમ ખેડુતો બાકીનો ખર્ચ ઉપાડી લેવાના છે.
       "ચલો ગુજરાતને સિક્કીમની જેમ સંપૂર્ણ જૈવિક ખેતી તરફ લઈ જવા સંકલ્પ કરીએ "
ખાસ નોંધ:- આ મેસેજ પોત પોતાના ગૃપમાં વધુ માં વધુ ફોરવર્ડ  કરી વધુ માં વધુ ખેડુતો ભાગ લે તેવું કરશો.

1 જાન્યુ, 2019

सत्येन्द्रनाथ बोस

सत्येन्द्रनाथ बोस

      जीवनी बोस-आइन्स्टाइन सांख्यिकी (बोसॉन) के विषय में M.Sc. भौतिकी पढने वाल सभी विद्यार्थी जानते है | इस सांख्यिकी का विकास भारत के जाने माने वैज्ञानिक सत्येन्द्र नाथ बोस (Satyendra Nath Bose) ने किया था | उनके साथ आइन्स्टाइन का नाम जुड़ा हुआ है यद्यपि बोस ने आइन्स्टाइन के साथ कभी भी कार्य नही किया लेकिन बोस उनको सदैव अपना गुरु मानते थे क्योंकि उन्होंने अपना सांख्यिकी से संबधित शोधपत्र सबसे पहले विश्वप्रसिद्ध वैज्ञानिक आइन्स्टाइन के पास ही भेजा था |  बोस (Satyendra Nath Bose) का जन्म कलकत्ता में 1 जनवरी 1894 को हुआ था | इनके पिता सुरेन्द्रनाथ बोस भारत के रेलवे विभाग में एक अधिकारी थे | सत्येन्द्रनाथ बोस (Satyendra Nath Bose) अपनी कक्षा में सदैव प्रथम आते थे | वे इतने प्रतिभाशाली छात्र थे कि उन्हें के बार एक पेपर में 100 में से 110 अंक मिले | यह गणित का पेपर था और उन्होंने इस प्रश्नपत्र में पूछे गये प्रश्नों को एक से अधिक तरीके से हल किया था | उनकी इस अभूतपूर्व प्रतिभा को देखकर एक अध्यापक ने यह भविष्यवाणी की थी कि यह बालक एक दिन महान गणितज्ञ बनेगा | सन 1915 में इन्होने पुरे कलकत्ता विश्वविद्यालय ममे प्रथम स्थान ग्रहण किया था | उसी वर्ष उन्होंने सापेक्षिता के सिद्धांत से संबधित आइन्स्टाइन के मूल शोधपत्र का जर्मन से अंग्रेजी में अनुवाद किया | सन 1916 में M.Sc. करने के बाद वे ढाका विश्वविद्यालय के भौतिकी के अध्यापक हो गये | उन दिनों प्रथम विश्वयुद्ध जोरो पर चल रहा था इसलिए यूरोप में किये जा रहे अनुसन्धान के समाचार बाहर नही पहुच पाते थे | देवेन्द्र मोहन बोस उन दिनों जर्मनी में चुम्बकत्व के क्षेत्र में अनुसन्धान कर रहे थे | सत्येन्द्रनाथ बोस (Satyendra Nath Bose) देवेन्द्र मोहन बोस को पत्र लिखकर अनुसन्धानो के विषय में जानकारी प्राप्त करते रहते थे | सन 1923 में रीडर बनने के बाद बोस ने एक शोधपत्र लिखा जिस उन्होंने एक ब्रिटिश पत्रिका में छपने के लिए भेजा | इस शोध पत्रिका ने अस्वीकार कर दिया | यही से बोस (Satyendra Nath Bose) का मशहूर होने का इतिहास शुरू होता है | शोधपत्र के अस्वीकार होने पर यह विचलित नही हुए बल्कि उन्होंने इस शोधपत्र को आइन्स्टाइन को भेजा | आइन्स्टाइन ने इस पत्र को जर्मन में अनुवाद करके “जीत फर फिजिक” नामक पत्रिका में प्रकाशित करवाया  आइन्स्टाइन ने बोस (Satyendra Nath Bose) को स्वयं एक पत्र लिखा कि तुम्हारा कार्य गणित के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण कार्य है | इसके बाद बोस का नाम आइंस्टीन के साथ बोस-आइंस्टीन सांख्यिकी के रूप में हमेशा के लिए जुड़ गया | बोस ने मैडम क्युरी के साथ कार्य किया | पेरिस से बर्लिन गये | वहा उनका आइंस्टीन ने भव्य स्वागत किया | सन 1945 में वे ढाका छोडकर कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्रोफेसर बन गये | सन 1956 में अवकाश ग्रहण करने के बाद उन्हें विश्वभारती विश्वविद्यालय का उपकुलपति बनाया गया   सन 1958 में उन्हें रॉयल सोसाइटी का फेलो बनाया गया | इसी वर्ष उन्हें भारत सरकार ने पद्म विभूषण से सम्मानित किया और राष्ट्रीय प्रोफेसर बनाया | वृद्धावस्था में वे साधुओ जैसे भगवे रंग के कपड़े पहनने लगे थे | इस उम्र में भी वे देश के वैज्ञानिकों से विचारों का आदान-प्रदान करते रहते है | इस उम्र में भी वे देश के अनेक संस्थानों का दौरा करते रहते थे | विज्ञान की सेवा करते हुए सन 1974 में उनकी मृत्यु हो गयी ।