घायल शेर की दहाड
28 जनवरी -लाला लाजपतराय जयंती
जिन देशभक्तों के बलिदानों के कारण दासता की जंजीरों से जकडा हमारा देश भारत स्वतंत्र हुआ था, जिनकी बदौलत अनेक प्रतिकूलताओं के बाद भी भारत-भूमि स्वतंत्र हुई तथा देश सुख की सांस ले पाया, उन्हीं महान विभूतियों में से एक थे ‘लाला लाजपत राय‘ ।
सन् १८९६ से १९०८ के बीच उत्तर भारत में कई बार अकाल पडे । अकाल के कारण पीडित जनता को देख ईसाई पादरियों ने मौका पाकर उनकी सहायता करने का ढोंग रचा तथा उनका धर्म-परिवर्तन कराकर उन्हें ईसाई बनाना प्रारम्भ कर दिया । लालाजी ने इसका विरोध किया तथा विभिन्न स्थानों पर अन्नक्षेत्रों एवं अनाथालयों की स्थापना की ।
उस समय भारत-भूमि को अंग्रेजों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए अनेक आंदोलन चलाये जा रहे थे । ‘पंजाब केसरी लाला लाजपतराय की बढती प्रसिद्धि एवं उनके प्रभाव से घबराकर अंग्रेजों ने उन्हें गिरफ्तार कर बर्मा की जेल में कैद कर दिया । लालाजी डेढ वर्ष तक जेल में रहे । इसी समय उन्होंने प्रसिद्ध तीन पुस्तकें - ‘महान अशोक, ‘श्रीकृष्ण और उनकी शिक्षा तथा ‘छत्रपति शिवाजी लिखा । कारागार से छूटने के बाद लालाजी ने वकालत को पूर्णतः त्यागकर अपना पूरा समय राष्ट्र-सेवा में समर्पित कर दिया ।
लालाजी चाहते थे कि जो युवक अपना पूरा समय देश-सेवा के लिए देना चाहते हैं अथवा देते हैं, उन्हें परिवार के भरण-पोषण की चिंता से मुक्त कर देना चाहिए । इसके लिए उन्होंने ‘लोक सेवक मंडल नामक एक संस्था की स्थापना की । सन् १९२८ में ब्रिटिश सरकार द्वारा भारत में भेजी गयी ‘साइमन कमीशन का विरोध करने के लिए लालाजी बीमार होते हुए भी लाहौर पहुँचे । इस कारण पुलिस बौखला गई और लोगों पर लाठियाँ बरसाने लगी । मृत्यु के इस ताण्डव में लाला लाजपत राय को विशेष निशाना बनाया गया ।
लालाजी का दुर्बल शरीर क्रूर अँग्रेजों द्वारा निर्दयतापूर्वक बरसायी गयी लाठियों को न सह सका और आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर करनेवाले इस वीर का नश्वर शरीर १७ नवम्बर, १९२८ को इस देवभूमि से उठ गया । इसके साथ ही अपनी मातृभूमि के लिए बलिदान देने वाले वीर शहीदों की माला में एक मोती और जुड गया ।
अपने अंतिम शब्दों में भी लालाजी देश-प्रेम तथा जोश का जो उदाहरण दिया, वह किसी घायल शेर की दहाड से कम नहीं था । लालाजी ने कहा : ‘‘मेरे शरीर पर पडी एक-एक चोट ब्रिटिश-साम्राज्य के कफन की कील बनेगी ।
वास्तव में हुआ भी यही । लालाजी को वीरगति प्राप्त होने के बाद गाँधीजी ने भी ‘करो या मरो का नारा देकर अपने आंदोलन को आगे बढाया । लालाजी की वीरगति प्राप्ति पर जनता में आक्रोश फैल गया तथा सुभाष चन्द्र बोस, चन्द्रशेखर आजाद तथा भगतqसह जैसे वीरों का प्रादुर्भाव हुआ एवं अंततः भारत को स्वतंत्रता प्राप्ति हुई ।
किंतु जरा विचार कीजिये कि देश को आजादी दिलाने के लिए अपने प्राणों की आहुति देनेवाले इन वीर शहीदों के सपने को हम कहाँ तक साकार कर सके हैं ? हमने उनके बलिदानों का कितना आदर किया है ?
वास्तव में, हमने उन अमर शहीदों के बलिदानों को कोई सम्मान ही नहीं दिया है । तभी तो स्वतंत्रता के ६७ वर्ष बाद भी हमारा देश पश्चिमी संस्कृति की गुलामी में जकडता जा रहा है ।
इन महापुरुषों की सच्ची पुण्यतिथि तो तभी मनाई जाएगी, जब प्रत्येक भारतवासी उनके जीवन को अपना आदर्श बनायेंगे, उनके सपनों को साकार करेंगे तथा जैसे भारत का निर्माण वे महापुरुष करना चाहते थे, वैसा ही हम करके दिखायें । यही उनकी पुण्यतिथि मनाना है ।
(लोक कल्याण सेतू, अंक : नवम्बर १९९८ से)
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